सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अगस्त, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
मोदी की कविता  मुझे किसी को मापना नहीं है        मुझे किसी को मापना नहीं है मुझे अपनी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करनी है। मुझे तो नीर-क्षीर के विवेक को ही पाना है। मेरी समर्पण-यात्रा के लिए यह सब जरूरी है। इसीलिए इस शक्ति के उपासना का केंद्र स्व का सुख नहीं बनाना है। मां.. तू ही मुझे शक्ति दे- जिससे मैं किसी के भी साथ अन्याय न कर बैठूं, परंतु मुझे अन्याय सहन करने की शक्ति प्रदान कर। (साक्षी भाव से) नरेंद्र मोदी
 मोदी की कविता  मां.. मुझे कुछ भी मांगना नहीं है       मां.. यह याचना नहीं, मुझे कुछ भी मांगना नहीं है। मुझे तो इस जगत को जोड़ने वाली अप्रतिम प्रेम-सृष्टि 'स्व' के साथ नहीं त्वम के साथ सर्जन पाती है त्वम के साथ ही विलीन हो जाती है और इसीलिए  प्राप्त करना है ये भाव-जगत। मां.. मुझे शंका-कुशंका आशा-निराशा भय-चिंता सफलता-असफलता, पाना या खो देना आदि सर्व भावों से मुक्त कर । मां.. मुक्त कर । (साक्षी भाव से) नरेंद्र मोदी
मोदी की कविता   कैसे कठिन पल होते हैं ?         भूखे-सूखे खेत हों, धरा ताप से तपी हो, कितने-कितनों के आशा-अरमान के अंकुर फूटते हैं। आंखों में छोटे-छोटे स्वप्नों की लहरें हिलोरें लेने लगती हैं। परंतु अचानक ही पवन के एक झोंके से ये बादल बरसे बिना ही बिखर जाएं- तब ? अरे रे ! कैसे कठिन पल होते हैं ?  (साक्षी भाव से) नरेंद्र मोदी
मोदी की कविता मां.. मुझे शक्ति दे        मां, क्या कल सुबह का सूरज भी ऐसा ही उदित होगा ? अभी तो ऐसा ही लग रहा है अब कल के सूरज के उदित होने का समय ही कहां शेष है ! पल- दो पल में उदित हो जाएगा ! तो यह सूरज भी आज की पार्श्वभूमि में ही होगा क्या ? मां ! शब्द, भावना- सबकुछ अभी तो सुन्न बन बैठा हूं। मां, तू ही मुझे शक्ति दे- जिससे मैं किसी के साथ अन्याय न कर बैठूं, परंतु मुझे अन्याय सहन करने की शक्ति प्रदान कर। मां, देख न एक याचक की तरह रोज तेरे सामने याचना ही करता रहता हूं तू ही दात्री है, तू ही धात्री है, इसका विश्वास है।   (साक्षी भाव से) नरेंद्र मोदी
मोदी की कविता सपनों का खंडहर        सुबह का सूरज कुछ-न-कुछ भनक लेकर आता है परंतु आज का सूरज कुछ धुंधला कुछ बेचैन करनेवाला कोई चिंता पैदा करने वाला नहीं पता, मेरे स्वंय का कुछ लूटा जा रहा है ऐसे मिश्र भावों के साथ सूरज मेरे आस-पास घूमता रहता है मन और मेरे मध्य अद्वैत का सेतु क्यों सर्जन नहीं कर पाता है देखो कभी मैं यहां तो मन वहां कभी मन यहां तो मैं कहीं और, पल-दो पल में योजनों दूर यह मन कैसी छलांग मार चला जाता है ! (साक्षी भाव से) नरेंद्र मोदी 
मोदी की कविता  जीवन का अधिष्ठान      इतना जानने के बाद भी किसलिए निरपेक्ष भाव जीवन का अधिष्ठान नहीं बनता है? किसलिए जीवन कामनाओं से परे नहीं बनता ? जीवन कहीं स्वप्नों का चिरंतन स्मारक बन नवजीवन को गति और मति दोनों ही देता है, तो कहीं जीवन स्वप्नों का खंडहर बन आह और आंसू से छलकता है। इसीलिए तो निरपेक्ष भावपूर्ण जीवन की कामना करता हूं, याचना करता हूं! नरेंद्र मोदी