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अब बर्दाश्त नही होता......

अब बर्दाश्त नही होता...... दिल्ली, मुंबई, बनारस, जयपुर सब देखा हमने अपनों को मरते देखा , सपनो को टूटते देखा .... अख़बारों की काली स्याही को खून से रंगते देखा ! टेलीविजन के रंगीन चित्रों को बेरंग होते देखा ! आख़िर क्यों हम बार- बार शिकार होते हैं आतंकवाद का ? यह आतंकी कौन है और क्या चाहता है ? क्यों हमारी ज़िन्दगी में ज़हर घोलता है ? क्यों वो नापाक इरादे लेकर चलता है और हमें मौत बांटता है ? कोई तो बताए हमें , हम कब तक यूँ ही मरते रहेंगे.....? कब तक माँ की गोद सूनी होती रहेगी ? कब तक बहन की रोती आँखें लाशों के बीच अपने भाई को ढूंढेगी ? कब तक बच्चे माँ - बाप के दुलार से महरूम होते रहेंगे..... ? आख़िर कब तक ..............? यह सवाल मेरे ज़हन में बार - बार उठता है , खून खौलता है मेरा जब मासूमो के लहू को बहते देखता हूँ , न चाहते हुए भी आंखों को वो मंज़र देखना पड़ता है , न चाहते हुए भी कानो को वह चीख - पुकार सुनना पड़ता है । आख़िर कब तक ? आख़िर कब तक ?

राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र के शिक्षक के नाम पत्र

  अब्राहम लिंकन का पुत्र के शिक्षक के नाम खत यह पत्र अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र के शिक्षक के नाम लिखा गया था। आज भी यह पत्र अपनी प्रासिंगकता बनाये हुए है । मुझे उम्मीद है की यह हम सभी के लिए प्रेरणा का पत्र साबित होगा । हे शिक्षक ! मैं जानता हूँ और मानता हूँ की न तो हर आदमी सही होता है और न ही होता है सच्चा; किंतु तुम्हें सिखाना होगा की कौन बुरा है और कौन अच्छा। दुष्ट व्यक्तियों के साथ साथ आदर्श प्रणेता भी होते हैं, स्वार्थी राजनीतिज्ञों के साथ समर्पित नेता भी होते हैं; दुष्मनों के साथ - साथ मित्र भी होते हैं, हर विरूपता के साथ सुन्दर चित्र भी होते हैं , समय भले ही लग जाय, पर यदि सिखा सको तो उसे सिखाना कि पाये हुए पाँच से अधिक मूल्यवान है स्वयं एक कमाना । पाई हुई हार को कैसे झेले, उसे यह भी सिखाना और साथ ही सिखाना, जीत की खुशियाँ मनाना यदि हो सके तो ईर्ष्या या द्वेष से परे हटाना और जीवन में छिपी मौन मुस्कान का पाठ पठाना। जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना की दूसरों को आतंकित करने वाला स्वयं कमज़ोर होता है वह भयभीत व चिंतित है क्योंकि उसके मन म

धूमिल की कविता "मोचीराम "

मोचीराम की चंद पंक्तियाँ राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझेक्षण-भर टटोला और फिर जैसे पतियाये हुये स्वर में वह हँसते हुये बोला- बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में न कोई छोटा है न कोई बड़ा है मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिये खड़ा है। और असल बात तो यह है कि वह चाहे जो है जैसा है, जहाँ कहीं है आजकल कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है, फिर भी मुझे ख्याल रहता है कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है जिस पर टाँके पड़ते हैं, जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है। यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैंऔर आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’बतलाते हैं सबकी अपनी-अपनी शक्ल हैअपनी-अपनी शैली है मसलन एक जूता है:जूता क्या है-चकतियों की थैली है इसे एक आदमी पहनता है जिसे चेचक ने चुग लिया है उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे परकोई पतंग फँसी है और खड़खड़ा रही है। ‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो? ’मैं कहना चाहता हूँ मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है मैं महसूस करता हूँ- भीतर सेएक आवाज़ आती ह

बच्चन की "मधुशाला"

मधुशाला की चंद पंक्तियाँ आपके लिए मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला, 'किस पथ से जाऊँ? ' असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ - 'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'।   मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला, हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला, ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला। सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला, सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला, बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है, चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला। लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला, फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला, दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं, पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला। जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला, ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है, जलने से भयभीत न जो

यूँ ही मुस्कुराता चल, खुशी के गीत गाता चल.....

रोते हुए आते हैं सब , हँसता हुआ जो जाएगा ..... वो मुक्कदर का सिकंदर कहलाएगा ..... अमिताभ बच्चन पर फिल्माया यह गीत जब मैंने पहली बार सुना तो महसूस हुआ की महत्वपूर्ण यह नही है की आप कहाँ जन्म ले रहे हैं महत्त्वपूर्ण यह है की जन्म के बाद की जिंदगी आप कैसे जीते हैं ? जिंदगी की धूप - छाँव, ऊँच- नीच के बीच हम कैसे जिंदगी गुजारते हैं ? करवट लेते वक्त में हम अपने आप को कितना सम्हाले रखते हैं और मुसीबतों से बचते हुए कैसे आगे बढ़ते हैं...... ? यूँ ही मुस्कुराता चल, खुशी के गीत गाता चल भले ही राह में हो मुश्किलें कितनी, अड़चने कितनी उसे तू दूर करता चल यूँ ही मुस्कुराता चल, खुशी के गीत गाता चल ।। इंसान है तू शैतान न बन बेईमानों से लड़ता चल, उजियारे पर चलता चल यूँ ही मुस्कुराता चल, खुशी के गीत गाता चल ।। देश धर्म पर मीटता चल, सच्चाई के राह पर चल इक मुकम्मल जहाँ बनाता चल यूँ ही मुस्कुराता चल, खुशी के गीत गाता चल यूँ ही मुस्कुराता चल, खुशी के गीत गाता चल ।।

हमें आगे बढ़ना होगा , बढ़ना होगा आगे.......

हमें आगे बढ़ना होगा... आज भले ही हम इक्कसवीं शताब्दी में जी रहे हों मगर हमारी ज़मीनी हकीक़त कुछ और ही है । आज भी इस देश की इक्कीस प्रतीशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जी रही है । जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग मध्य वर्ग इसी संतोष में जी रहा है की आज नही तो कल उसका सपना जरुर पूरा होगा । हाँ, यह बात जरुर है की आर्थिक उदारीकरण ने इनके सपनो को कुछ हद तक पूरा भी किया है । मगर मंजिल अभी बहुत दूर है । बिहार की बाढ़ में लाखों बह गए । कौन है जिम्मेदार ? आतंकवाद के भेंट हजारों चढ़ गए । कौन है जिम्मेदार ? आज़ादी के साठ साल पूरे हो चुके हैं । नेता, नौकरशाह अमीर हो गए , स्विस बैंक में देश का अरबों रुपयें जमा है । परन्तु देश क़र्ज़ में डूबा है, हम तीसरी दुनिया के लोग कहलाते हैं । कौन है जिम्मेदार ? कहीं हम तो नही ? ज़रा सोचिए! इसलिए मैं कहता हूँ........ हमें आगे बढ़ना होगा , बढ़ना होगा आगे पग-पग पर हैं काटें उनको फूल बनाना होगा हमें आगे बढ़ना होगा , बढ़ना होगा आगे । चाहे सूनामी आए या आए भूकंप कहीं पर लड़ना होगा इससे हमको जितना होगा इसको हमें आगे बढ़

भारत की जनता.....

भारत की जनता बहुत पहले एक कविता भारतीय जनता की स्थितियों को लेकर लिखा था.... एक ऐसी जनता जो दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र में रहती है, जिसे अपना सरकार चुनने की छूट है, जो अपने देश के भाग्यविधाताओं के किस्मत का फैसला अपना मत देकर करती है, बड़ी ही गरीबी, लाचारी, और तंगहाली में जिंदा रहती है । इस देश की बड़ी संख्या आज भी अभावों में जी रही है । उसे कोई फर्क नही पड़ता की प्रधानमंत्री अमेरिका के साथ क्या डील करते हैं ? उसे मतलब है की किसी तरह उसे पेट भर भोजन मिल जाय। देश में सूचना क्रांति आए या फिर यह देश परमाणु शक्ति से संपन्न हो जाय, उसे कोई फर्क नही पड़ता । मगर धीरे- धीरे ही सही वह जनता अब जागने लगी है । तभी तो इस बार बाहूबलियों और बेईमानों को नानी याद आ गई और संसद से महरुम होना पड़ा । यह है भारत की जनता भूखी नंगी है यह बेबस - लाचार है खोई -खोई है यह सोई - सोई सी है । क्या कहूँ मै तुमसे , कि कैसी है यह ? ख़ुद पर रोती है यह फिर भी जीती है यह । ताकत इनके है पास फिर भी है आभाव इनकी है यह कहानी गरीबी निशानी । बढ़ती संख्या की बोझ अधूरी शिक्षा की सोच लिए चलते हैं यह फिर भी आगे
मैं आपको उम्मीद दिलाता हूँ की " कुछ देर हमारे साथ चलो ...." आपको अपने साथ बहुत दूर ले जायेगी .....। गाँव की गलियों मे, शहरों की चौराहों पर । कुल्हर की चाय और मगधी पान की दुकान पर ....। जिंदगी की अनुभवों को आपसे बाँटने .... और आपकी अनुभवों से कुछ सिखने की मंशा ने ही मुझे यह ब्लॉग बनाने को प्रेरित किया ।