मोचीराम की चंद पंक्तियाँ
राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझेक्षण-भर टटोला
और फिर जैसे पतियाये हुये स्वर में वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में न कोई छोटा है न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिये खड़ा है।
और असल बात तो यह है कि वह चाहे जो है जैसा है,
और असल बात तो यह है कि वह चाहे जो है जैसा है,
फिर भी मुझे ख्याल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है।
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैंऔर आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’बतलाते हैं
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैंऔर आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल हैअपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है जिसे चेचक ने चुग लिया है उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे परकोई पतंग फँसी है और खड़खड़ा रही है।
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?
’मैं कहना चाहता हूँ मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है मैं महसूस करता हूँ-
भीतर सेएक आवाज़ आती है- कैसे आदमी हो अपनी जाति पर थूकते हो।
’आप यकीन करें, उस समयमैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।
एक जूता और है जिससे पैर को ‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है सैर को
एक जूता और है जिससे पैर को ‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है सैर को
न वह अक्लमन्द है न वक्त का पाबन्द है उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है उसे जाना कहीं नहीं है मगर चेहरे परबड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है या बिसाती है मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टोघिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ…
ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’ रुमाल से हवा करता है, मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है मगर नामा देते वक्तसाफ ‘नट’ जाता है शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है और कुछ सिक्के फेंककर आगे बढ़ जाता है अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है और पटरी पर चढ़ जाता है चोट जब पेशे पर पड़ती है तो कहीं-न-कहीं एक चोर की लदबी रह जाती है जो मौका पाकर उभरती है और अँगुली में गड़ती है।
मगर इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते और पेशे के बीच कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है जिस पर टाँके पड़ते हैं जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है।
सुदामा प्रसाद धूमिल
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मगर इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते और पेशे के बीच कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है जिस पर टाँके पड़ते हैं जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है।
सुदामा प्रसाद धूमिल
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