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दर्द वही.. पर दूरियों ने दबा दी चीख


वो वकील बनना चाहती थी.. पर उसके ख्वाब पूरे नहीं हो सके
वो अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी.. लेकिन ये सपना भी पूरी तरह से पूरा नहीं हो पाया
वो भरतनाट्यम में बहुत अच्छी थी ... वो आसपास के बच्चों को नृत्य सिखाती थी.. मलयालम फ़िल्मों में काम कर रही थी..
वो दलित थी.. समाज में ऊंचा मकाम पाना चाहती थी.. लेकिन इसी समाज ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा.. जिंदगी की जद्दोजहद में लगी वो एक दिन दुनिया छोड़ने पर मजबूर हो गई..
सारे सपने.. सारी इच्छाए.. सारे अरमान... धरे के धरे रह गए.. और प्राण पखेरू निकल गए..  उस पर से दिल्ली से हजारों किलोमीटर की दूरी ने उसकी उस आखिरी चीख को भी अनसुना कर दिया.. जो उसकी जिंदगी के सबसे भयंकर तकलीफ में निकले थे..
जब जीते जी.. उसकी आवाज किसी ने नहीं सुनी.. तो मरने के बाद कौन सुनता..
वो अपनी मां की लाडली थी.. घर की सबसे छोटी थी.. बड़ी तंगहाली में जीकर 29 सावन पार की थी.. लेकिन तीस की उमर छू पाती उसके पहले ही वो हमेशा हमेशा के लिए दुनिया छोड़ चली गई..
दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर.. केरल के पेरंबवूर में 'जीशा' अपनी मां और बड़ी बहन के साथ रहती थी.. जिस घर में वो पली बढ़ी थी.. बड़ी हुई थी.. आज उसी घर में सन्नटा पसरा है.. मातम ऐसा है कि रोने के बाद भी आवाज हलक तक नहीं आ रहे हैं.. एक दिन अचानक कुछ ऐसा हुआ कि 'जीशा' की मां को दहाड़े मार कर रोने पर मजबूर कर दिया.. खबर आई कि.. 'जीशा' अब इस दुनिया में नहीं है..
 पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से पता चला कि किसी तेज़ हथियार से 'जीशा' के आंतों को बाहर निकाला गया..  शरीर का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा था.. जहां घाव के निशान ना हो.. सिर से लेकर पैर तक उसके शरीर पर चाक़ू के 30 निशान थे.. दिल्ली की 'निर्भया' की तरह ही 'जीशा' की भी हत्या कर दी गई थी.. लेकिन 'जीशा' की खबर दिल्ली तक पहुंचते-पहुंचते बहुत देर हो गई..
जिस 'निर्भया' के लिए लोगों ने आसामान सिर पर उठा लिया था.. राजपथ पर शक्ति प्रदर्शन किया था.. कैंडल मार्च निकाला था.. लगभर वैसी ही जीशा के लिए ऐसा कुछ नहीं हुआ.. हिंदी मीडिया जो रेप और मर्डर पर अदालत से पहले ही सजा सुना देती है.. शायद उसे भी 'जीशा' का दर्द नजर नहीं आया.. तभी तो खबरें आई गई सी होकर रह गई ..
'जीशा' की तकलीफ को ना केरल में ठीक से सुना गया.. ना चीख को दिल्ली में.. एक लड़की पर जुल्म की आवाज.. बस दूरी की वजह से अनसुना कर दिया गया.. राष्ट्रीय महिला आयोग से लेकर महिलाओं के लिए काम करने वाली महिला संगठनों में भी उसकी आवाज दबी रह गई..
'जीशा' की मौत एक परिवार की मौत है.. उसकी आवाज को अनसुना कर देना ये बताने के लिए काफी है.. कि निर्भया के मौत के सालों बाद भी हालात जस के तस है.. अंधी और बहरी सरकार को इन मुद्दों से कोई सरोकार नहीं है.. उन्हें तो बस चुनाव जीतने.. और अपनी मनमानी से मतलब है.. 
 
आखिर कब तक 'जीशा' दम तोड़ते रहेगी.. आखिर कब तक 'जीशा' यूं ही मरते रहेगी.. आखिर कब तक 'जीशा' पर जुल्म होते रहेंगे.. आखिर कब तक हम यूं ही खामोश होकर सहते रहेंगे.. आखिर कब तक.. आखिर कब तक ?

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